2.5 रासबिहारी बोस, कैप्टन मोहन सिंह और आई.एन.ए.

       

           1908 के अलीपुर बम काण्ड में ब्रिटिश सरकार को एक क्रांतिकारी की तलाश है।

इसी क्रांतिकारी की तलाश उसे लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने के जुर्म में भी है। (बम बसन्त कुमार विश्वास ने फेंका था।)

और फिर, फरवरी 1915 में, जबकि ज्यादातर भारतीय सैनिक प्रथम विश्वयुद्ध में (ब्रिटेन की ओर से) भाग लेने के लिए यूरोप गये हुए हैं, तब पँजाब से लेकर बँगाल और हाँग-काँग से लेकर सिंगापुर तक के बैरकों में बचे सैनिकों को (1857 की तर्ज पर) बगावत के लिए तैयार करने के जुर्म में भी इसी क्रांतिकारी को ब्रिटिश सरकार खोज रही है। (बगावत की यह रणनीति जर्मनी के सहयोग से बनायी गयी थी।)

और वह क्रांतिकारी है कि भेष बदल-बदल कर बार-बार पुलिस के सामने से निकल जाता है।

अन्त में सरकार उसके सर पर एक लाख रूपये का ईनाम घोषित करती है।

1915 में ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर के भतीजे पी.एन. ठाकुर के नाम पर ये क्रांतिकारी जापान पहुँच जाते हैं।

इस दुर्धर्ष क्रांतिकारी का नाम है- रासबिहारी बोस।

जापान क्रांतिकारियों की इज्जत करना जानता है- वहाँ इन्हें न केवल शरण मिलता है, बल्कि ब्रिटिश दवाब के चलते उनकी पहचान और निवास को भी कई बार बदला जाता है। (ब्रिटिश दवाब इसलिए कि जापान और ब्रिटेन के बीच ऐंग्लो-जापानी सन्धि कायम है। जापान इस सन्धि को 1923 में तोड़ता है।)

1918 में ‘पैन एशियन’ के समर्थक सोमा आईज़ो तथा सोमा कोत्सुको की बेटी तोशिको सोमा के साथ विवाह कर 1923 में रासबिहारी बोस जापान की नागरिकता ग्रहण कर लेते हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध के समय का सैन्य बगावत असफल रह गया था- सिर्फ हाँग-काँग में बगावत हुई थी; अतः द्वितीय विश्वयुद्ध में फिर ऐसी ही कोशिश के लिए 28-30 मार्च 1942 को टोक्यो में एक अधिवेशन बुलाकर रासबिहारी बोस ‘इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स लीग’ (आई.आई,एल.) की स्थापना करते हैं।

(उल्लेखनीय है कि रासबिहारी बोस को जापान में उगते सूर्य का सम्मान (ऑर्डर ऑव द राइजिंग सन) प्रदान किया गया था। सम्राट हिरोहितो ने प्रोटोकोल का उल्लंघन करते हुए रासबिहारी बोस की अन्तिम यात्रा (21 जनवरी 1945) में राजसी शवपेटिका भेजवायी थी।)       

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       पर्ल हार्बर (7 दिसम्बर 41) की घटना के बाद दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य (ब्रिटिश, अमेरिकी, फ्रेंच, डच) ठिकानों पर जापान बिजली की तरह हमले करता है।

ब्रिटिश सेना (1/14 पंजाब रेजीमेण्ट) के एक अधिकारी कैप्टन मोहन सिंह अपने कुछ साथियों के साथ मलाया प्रायद्वीप में मुख्य सेना से बिछुड़कर दक्षिण की ओर भाग रहे हैं।

उनकी मुलाकात एक दूसरे फौजी ज्ञानी प्रीतम सिंह से होती है। इस क्षेत्र में जापान के फील्ड इण्टेलीजेन्स सेक्शन के अधिकारी मेजर फुजिवारा के साथ प्रीतम सिंह पहले ही (4 दिसम्बर 41) गुप्त सन्धि कर चुके हैं। दिसम्बर के मध्य में मोहन सिंह भी इस सन्धि से जुड़कर आत्मसमर्पण करते हैं।

(जापान के युद्ध में कूदने के काफी पहले से फुजिवारा दक्षिण-पूर्वी एशिया में ब्रिटिश विरोधी भारतीयों को एक सूत्र में पिरोने का काम कर रहें हैं। वे भारतीय मानसिकता के अच्छे जानकार हैं। वे रासबिहारी बोस, प्रीतम सिंह, बाबा अमर सिंह, स्वामी सत्यानन्द पुरी, आनन्द मोहन सहाय, देवनाथ दास- जैसे नेताओं के सम्पर्क में हैं।)

11 जनवरी 42 को कुआलालामपुर में 3,500 भारतीय सैनिकों को युद्धबन्दी बनाया जाता है और 15 फरवरी को सिंगापुर में तो 85,000 ब्रिटिश सैनिक आत्मसमर्पण करते हैं, जिनमें 45,000 भारतीय होते हैं।

इन पैंतालीस हजार भारतीय सैनिकों को दो दिनों बाद 17 फरवरी को फारेर पार्क (Farrer Park) में इकट्ठा किया जाता है, जापानी सैनिक भारत की आजादी के लिए एक मुक्ती सेना के गठन की बात कहते हैं और कैप्टन मोहन सिंह को नेता घोषित करते हैं। तुरन्त 20,000 सैनिक इस मुक्ती सेना में शामिल होने के लिए आगे बढ़ते हैं। बाद में युद्धबन्दी शिविरों में जाकर और भी सैनिकों को तैयार किया जाता है।

आई.आई.एल. का दूसरा अधिवेशन 15-23 जून 42 को बैकॉक में होता है, जहाँ मोहन सिंह को भारत को आजाद कराने वाली भावी सेना का कमाण्डर तय किया जाता है। यह सेना आई.आई.एल. के अधीन रहेगी- इस प्रकार, रासबिहारी बोस इसके सर्वेसर्वा होंगे।

1 सितम्बर 1942 को 40,000 भारतीय सैनिकों को लेकर ‘इण्डियन नेशनल आर्मी’ (आई.एन.ए) का जन्म होता है। मोहन सिंह इस सेना के जेनरल हैं।

शीघ्र ही, मोहन सिंह को ऐसा लगता है कि जापानी हाई कमान- यहाँ तक कि रासबिहारी बोस भी, आई.एन.ए. का इस्तेमाल सिर्फ प्रचार (प्रोपोगण्डा) के लिए करना चाह रहे हैं। जापान ने फिलहाल आई.एन.ए. के लिए एक ही काम तय कर रखा है- ब्रिटिश सेना में घुसपैठ करना और वहाँ मित्र बनाना- ब्रिटिश सेना से युद्ध की कोई योजना ही नहीं बनती। इसलिए मोहन सिंह का शक करना वाजिब है। हाँ, अतीत में रासबिहारी बोस की क्राँतिकारी गतिविधियों के बारे में वे शायद ज्यादा नहीं जानते, इसलिए वे रासबिहारी बोस की भारत-भक्ति पर भी शक करते हैं। (ध्यान रहे, रासबिहारी बोस 27 वर्षों से जापान में हैं और जापानी नागरिक बन चुके हैं।)

‘हिकारी किकान’ (जापान-भारत सम्पर्क समूह) से उनकी अनबन होती है और 29 दिसम्बर 42 को मोहन सिंह को (उनके साथी कर्नल गिल सहित) बगावत के जुर्म में जापान मिलिटरी पुलिस हिरासत में ले लेती है।

आई.एन.ए. को भंग कर दिया जाता है और भारतीय सैनिक वापस युद्धबन्दी शिविरों में लौट जाते हैं। बहुत-से सैनिकों को न्यू गायना के ‘डेथ रेलवे’ में काम करने के लिए भेज दिया जाता है। खुद मोहन सिंह को भी पुलाउ-उबिन (Pulau Ubin) निष्काषित कर दिया जाता है। (अगले वर्ष नेताजी के सिंगापुर आगमन के बाद ही यह सब ठीक होता है।)

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रासबिहारी बोस जापान सरकार से अनुरोध करते हैं- नेताजी को जल्द-से-जल्द जर्मनी से जापान बुलाना होगा, आई.एन.ए. को नेतृत्व वही दे सकते हैं, कोई और नहीं। वैसे भी, आई.आई.एल के बैंकॉक अधिवेशन (जून 42) में नेताजी को जर्मनी से द.पू. एशिया बुलाने का प्रस्ताव पारित हो चुका है।

जापानी ग्राउण्ड सेल्फ-डिफेन्स के लेफ्टिनेण्ट जेनरल सीजो आरिसु (Seizo Arisu) रासबिहारी बोस से पूछते है- क्या आप नेताजी के अधीन रहकर काम करने के लिए तैयार हैं? (रासबिहारी बोस उम्र में नेताजी से ग्यारह साल बड़े हैं, और आजादी के संघर्ष में भी वे नेताजी से वरिष्ठ हैं।) रासबिहारी बोस का जवाब है कि देश की आजादी के लिए वे सहर्ष नेताजी के अधीन रहकर काम करेंगे।

जर्मनी में जापान के राजदूत जनरल ओशिमा को सन्देश भेजा जाता है और नेताजी को जर्मनी से जापान भेजने के प्रयास तेज हो जाते हैं।

हाँ, दूतावास में जापानी मिलिटरी अटैश के श्री हिगुति (Mr. Higuti) नेताजी से यह पूछना नहीं भूलते कि कि वे रासबिहारी बोस के अधीन रहकर काम करना पसन्द करेंगे या नहीं?

नेताजी का जवाब है कि व्यक्तिगत रुप से तो वे रासबिहारी बोस को नहीं जानते; मगर चूँकि वे टोक्यो में रहकर भारत की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इसलिए वे (नेताजी) खुशी-खुशी उनके सिपाही बनने के लिए तैयार हैं। 

(आजादी के संघर्ष के दो महानायक एक-दूसरे के अधीन रहकर देश की आजादी के लिए काम करने को तैयार हैं- यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसे हमारे देश के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ाया जाना चाहिए। मगर अफसोस!)

उधर सिंगापुर में 15 फरवरी 43 को आई.आई.एल के मिलिटरी ब्यूरो के निदेशक ले. कर्नल भोंसले के नेतृत्व में आई.एन.ए. को फिर से खड़ा करने की कोशिश की जाती है, मगर ज्यादातर भारतीय सैनिक उत्साही नहीं हैं।

सिंगापुर के बिदाद्रि कैम्प में करीब तीन सौ भारतीय अधिकारियों व सैनिकों से मिलकर जापानी सैन्य अधिकारी इवाकुरो उन्हें आई.एन.ए. में शामिल होने की सलाह देते हैं- मगर बेकार।

बाद में, वे भारतीयों को खुलकर बोलने का अवसर देते हैं। इस पर, प्रायः सभी कहते हैं- नेताजी को जर्मनी से बुलाकर उन्हें आई.एन.ए. की कमान सौंपी जाय, तभी वे इसमें बने रहेंगे। दरअसल, मई 42 में हिटलर द्वारा नेताजी को सैन्य मदद न दे पाने की बात अब सब जानते हैं।

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15 फरवरी’ 43 के दिन सिंगापुर में जब भारतीय सैनिक नेताजी के लिए माँग कर रहे हैं, तब मस्तुदा नाम के एक अति महत्वपूर्ण व्यक्ति जर्मन पनडुब्बी में सवार होकर उत्तरी अटलान्टिक महासागर की गहराईयों से गुजर रहे होते हैं- जर्मनी से जापान आने के लिए।

बहुत ही कम लोग हैं, जो यह जानते हैं कि ये मस्तुदा और कोई नहीं, बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हैं!