3.6 मोयरांग में तिरंगा

       

      णिपुर की राजधानी इम्फाल 3,000 फीट की ऊँचाई पर एक समतल पठार पर अवस्थित है, जिसके चारों तरफ दुर्लंघ्य पर्वतमालाएँ हैं। पूर्व की ओर 2,000 से 4,000 फीट ऊँची ये पर्वतश्रेणियाँ कोई 800 किलोमीटर तक फैली हुई हैं। पश्चिम और दक्षिण की ओर अराकान श्रेणी की चिन पहाड़ियाँ हैं। ये जंगल और पहाड़ ऐसे हैं कि सभ्य मनुष्य इनमें जीवित नहीं रह सकते। उत्तर यानि भारत की ओर, दीमापुर से नागा पहाड़ियों पर से एक खड़ी चढ़ाई वाली (160 किलोमीटर लम्बी) सड़क इम्फाल तक आती है। दीमापुर एक सिंगल ट्रैक रेलवे लाईन से आसाम और बंगाल से जुड़ा है- यह रेल लाईन दोनों ही पक्षों के लिए महत्वपूर्ण है।

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फिलहाल ब्रिटिश सेना या मित्र राष्ट्र की सेना ने इम्फाल शहर को एक बड़ी छावनी और आपूर्ती केन्द्र में तब्दील कर रखा है। क्षेत्र में बहुत सारी सड़कों एवं पुलों का निर्माण/मरम्मत किया गया है, सैकड़ों हवाई पट्टियाँ बनायी गयी हैं।

इम्फाल की रक्षा के लिए ब्रिटिश सेना की 17वीं वाहिनी इसके दक्षिण में (टिड्डिम में) मेजर जेनरल डी.टी. कॉवन के नेतृत्व में, और 20वीं वाहिनी इसके पूरब में (तामू में) मे. जेनरल ग्रेसी के नेतृत्व में तैनात है, जबकि 23वीं वाहिनी को मे. जेनरल ओ.एल. रॉबर्टस के नेतृत्व में इम्फाल में आरक्षित बल के रुप रखा गया है।

इनके अलावे 50वाँ पाराब्रिगेड और 254वाँ टैंक ब्रिगेड भी यहाँ डटे हुए हैं।

युद्ध शुरु होने के बाद 5वीं वाहिनी को मे. जेनरल एच.आर. ब्रिग्स के नेतृत्व में 18 से 29 मार्च के बीच और 7वीं वाहिनी को मे. जेनरल फ्रैंक मेसरी के नेतृत्व में 18 अप्रैल को यहाँ हवाई जहाजों द्वारा लाकर तैनात किया जाता है।

कुल-मिलाकर 10 ब्रिगेड इन वाहिनियों में हैं। इस व्यूह रचना को चौथी कोर कहा जाता है, जिसके सेनापति हैं ले. जेनरल जियोफ्री स्कून्स और जिसमें लड़ाकू सैनिकों की संख्या 1,55,000 है। आगे यह चौथी कोर, 14वीं ब्रिटिश सेना के अधीन है, जिसके सेनापति फील्डमार्शल विलियम स्लिम हैं।

इन सबके अलावे शाही भारतीय वायु सेना (RIAF) के कुल 13 विंगों की नियमित सहायता इस व्यूह रचना को मिली हुई है।

मित्र राष्ट्र के एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के सर्वोच्च सेनापति एडमिरल लॉर्ड माउण्टबैटन, एयर मार्शल जॉन बाल्डविन, फील्डमार्शल डब्ल्यू स्लिम तथा अन्य तमाम बड़े-बड़े सैन्याधिकारी यहाँ डेरा डालते रहते हैं। युद्ध के दिनों में स्लिम यहाँ टिक ही जाते हैं।

जापान ने जल-थल मार्ग से चीन की जो पिछले तीन वर्षों से नाकेबन्दी कर रखी है, उसे तोड़ने के लिए आसाम और उत्तरी बर्मा के घने जंगलों के बीच से होकर 1,000 किलोमीटर लम्बी सड़क (लीडो रोड) ‘युद्धस्तर की दुगनी’ रफ्तार से बन रही है, जो दक्षिणी चीन के युन्नान प्रान्त की राजधानी कुनमिंग में जाकर समाप्त होगी। वहाँ अमेरीका का हवाई अड्डा बनेगा।

अमेरिकी नॉदर्न कॉम्बैट एरिया कमाण्ड के जेनरल जोसेफ डब्ल्यू. स्टीलवेल के नेतृत्व में 76 अमेरिकी भारवाहक विमान (ज्यादातर सी-47 स्काईट्रेन) इस कार्य में लगे हुए हैं।

मित्रराष्ट्र वाले खुद ही बर्मा में जापानी सेना पर आक्रमण की तैयारियाँ कर रहे हैं- इसलिए ब्रिटिश सैनिकों को चिन्दविन नदी तक तैनात रखा गया है।

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इधर नेताजी/जापान की व्यूह रचना में तीन डीविजन शामिल है- लेफ्टिनेण्ट जेनरल मासाफुमि यामाउचि के नेतृत्व में 15वीं वाहिनी; ले. जेनरल सातो कोटुकू के नेतृत्व में 31वीं वाहिनी, और ले. जेनरल गेंजो यानागिडा के नेतृत्व में 33वीं वाहिनी। तीनों में 5-5 रेजीमेण्ट हैं और कुल लड़ाकू सैनिकों की संख्या 1,15,000 है।

15वीं वहिनी के ही ले. जेनरल रेन्या मुतागुचि को अभियान का नेता बनाया गया है। कुल-मिलाकर यह व्यूह ‘बर्मा एरिया आर्मी’ के ले. जेनरल मासाकाजि कावाबे के अधीन है और आगे यह आर्मी ‘सदर्न एक्सपीडिशनरी आर्मी ग्रुप’ के अधीन है, जो कि द.पू. एशिया और द. प्रशान्त क्षेत्र की सर्वोच्च जापानी कमान है।

जापानी वायु सेना के कुछ स्क्वाड्रनों को ‘तात्कालिक’ रुप से इस ऑपरेशन में लगाया गया है।

यामाउचि की सेना को उत्तर की ओर से इम्फाल पर धावा बोलना है; सातो को (उत्तर में ही) कोहिमा पर कब्जा करते हुए दीमापुर बढ़ना है; यानागिडा को दक्षिण की ओर से (अपने पुराने शत्रु) 17वीं ब्रिटिश आर्मी को नष्ट करते हुए इम्फाल पर कब्जा करना है, और 33वीं एवं 15वीं वाहिनियों से टैंक व भारी तोपखाना लेकर बनाये गये विशेष बल को सुनोरु यामामोतो के नेतृत्व में पूर्व से 20वीं ब्रिटिश सेना से भिड़ते हुए इम्फाल पर चढ़ाई करनी है।   

आजाद हिन्द फौज के सुभाष ब्रिगेड को तीन बटालियनों में बाँटकर इस अभियान में शामिल किया गया है। पहला बटालियन 55वीं (जापानी) वाहिनी के साथ अराकान क्षेत्र में ब्रिटिश सेना का ध्यान बँटाने की कार्रवाई में भाग लेगा; दूसरा एस.एन. खान के नेतृत्व में यामामोतो फोर्स का साथ देगा, और तीसरा, जो कि वास्तव में हरावल (एक प्रकार से आत्मघाती) दस्ता है, यानागिडा की सेना के साथ रहते हुए दुश्मन की रक्षापंक्ति से सबसे पहले टकरायेगा- इस दस्ते का नाम है, ‘बहादूर ग्रुप’। इस प्रकार, प्रारम्भ में आजाद हिन्द फौज के 8,800 सैनिक ही अभियान में शामिल हैं।

बर्मा नेशनल आर्मी भी इस अभियान में साथ है।

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मुतागुचि की योजना के अनुसार, 4 फरवरी 1944 को अराकान क्षेत्र में आक्रमण किया जाता है, ताकि ब्रिटिश सेना यह समझे कि नेताजी चटगाँव के रास्ते भारत में प्रवेश करना चाहते हैं और झट अपने आरक्षित बलों को उस क्षेत्र में बुला ले। योजना सफल रहती है।

मेजर मिश्रा के नेतृत्व में सुभाष ब्रिगेड का यह बटालियन जापानी सेना के साथ कालादन के दोनों किनारों से होकर आगे बढ़ता है और पैलेटोआ तथा दोलेतमाई पर कब्जा करता है।

कुछ दिनों बाद 64 किमी और आगे बढ़कर चटगाँव के पास माउडक में ब्रिटिश आउटपोस्ट पर कब्जा कर लिया जाता है। ब्रिटिश आपूर्ती व्यवस्था को काटकर 7वीं ब्रिटिश वाहिनी को मायू घाटी में फँसा दिया जाता है।

इस स्थान पर खुद की आपूर्ती पहुँचाना भी कठिन है, इसलिए सूरजभान के नेतृत्व में एक भारतीय कम्पनी और एक जापानी प्लाटून को वहाँ छोड़कर बाकी सैनिक लौट आते हैं।

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10 फरवरी को कावाबे का सन्देशवाहक मुतागुचि को इम्फाल आक्रमण शुरु करने और एक महीने के अन्दर इसे जीतने का सन्देश देता है। (एक महीने के अन्दर इसलिए कि मौनसून आने के बाद जापानी आपूर्ती व्यवस्था टूट जायेगी।)

यामाउचि की 15वीं वाहिनी की टुकड़ियों का थाईलैण्ड से लौटना जारी है। मुतागुचि आक्रमण का दिन आगे बढ़ाकर 15 मार्च तय करते हैं। चिन्दविन नदी के किनारे-किनारे 200 किलोमीटर के फैलाव में करीब एक लाख जापानी सैनिकों की गुपचुप तैनाती की भनक तक उस पार तैनात ब्रिटिश सैनिकों और जासूसों को नहीं लगती।

15 मार्च को युद्ध-पत्रकारों को अपने मुख्यालय में बुलाकर मुतागुचि घोषणा करते हैं:

मुझे पक्का विश्वास है कि मेरे तीन डीविजन एक महीने के अन्दर इम्फाल को जीत लेंगे। तेजी से आगे बढ़ने के लिए मेरे सैनिक कम-से-कम साजो-सामान और तीन हफ्तों के लिए पर्याप्त राशन साथ लेकर चलेंगे। ब्रिटिश शिविरों से उन्हें जरूरत की सारी चीजें मिल जायेंगी। तो दोस्तों, सम्राट के जन्मदिन 29 अप्रैल के समारोह में इम्फाल में आपसे फिर मिलते हैं...।

जाहिर है, दो साल पहले सिंगापुर और बर्मा में ब्रिटिश सेना को पराजित करने वाले मुतागुचि का यह ‘अति’-आत्मविश्वास बोल रहा है। जबकि इन दो वर्षों में काफी कुछ बदल गया है। भोजन, हथियार और गोला-बारूद के लिए ब्रिटिश शिविरों पर निर्भरता का फैसला भी खतरनाक है; क्योंकि कोई भी सेना पीछे हटते वक्त या तो अपने आपूर्ती भण्डारों को भी पीछे हटा लेती है, या फिर उनमें आग लगा देती है। ब्रिटिश सेना भी यही करती है- पशुओं तक को कत्ल कर दिया जाता है!

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चिन्दविन नदी पार करके आजाद हिन्द फौज तथा जापानी सेना के सैनिक चीतों के समान कुलाँचे भरते घने जंगलों और पर्वतों को पार करते हैं। सभी टुकड़ियाँ योजनानुसार आक्रमण करती हैं। ब्रिटिश सेना के छक्के छूट जाते हैं। अपने शिविरों को छोड़कर पीछे हटती हुई (ब्रिटिश सेना की) सारी टुकड़ियाँ इम्फाल में इकट्ठी हो जाती हैं। हाँ, ब्रिटिश सेना विष्णुपुर शिविर को नहीं छोड़ती है और जापानी/नेताजी के सैनिक अन्त तक इस शिविर पर कब्जा नहीं कर पाते। (आगे चलकर यह असफलता युद्ध की ‘निर्णायक विन्दुओं’ में से एक साबित होती है।)

दो-तीन हफ्तों की लड़ाईयों के बाद ऐसी स्थिति बनती है कि यामाउचि की सेना इम्फाल के उत्तर में इम्फाल से 37 किमी दूर खड़ी होती है; दक्षिण में यानागिडा की सेना इम्फाल से 16 किमी दूर है; पूर्व में यामामोतो फोर्स तामू-इम्फाल रोड पर आगे बढ़ रही होती है; सातो की सेना कोहिमा पर कब्जा कर चुकी है; एस.एन खान के नेतृत्व में सुभाष ब्रिगेड के सैनिकों ने इम्फाल के दक्षिण-पूर्व में चिन पहाड़ियों में हाका और कालान में पोजीशन ले रखी है, और एस.एच. मलिक के नेतृत्व में बहादूर ग्रुप ने मोयरांग की ब्रिटिश शिविर पर कब्जा कर रखा है।

ब्रिटिश इम्फाल का सामरिक महत्व जानते हैं। सिंगापुर और बर्मा में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की किरकिरी हो चुकी है और अब ब्रिटेन ‘उपनिवेशों का कोहिनूर- भारत’ को खोना नहीं चाहता। अतः ब्रिटिश सेना को आदेश है कि आखिरी व्यक्ति के जीवित रहने तक इम्फाल की रक्षा की जाय। उधर इम्फाल तक पहुँचने वाले हर रास्ते पर जापानी या नेताजी के सैनिक डटे हैं- लगता है, इम्फाल का पतन तय है। मगर इम्फाल तक मदद पहुँचाने के लिए ब्रिटिश सेना के पास एक ऐसा मार्ग है, जिसका जापानी/नेताजी की सेना के पास कोई करारा जवाब नहीं है, और वह है- वायु मार्ग!

हालाँकि यामाउचि की सेना के 51वें रेजीमेण्ट ने कर्नल कीमिओ ओमोतो के नेतृत्व में नुंग शिगुम पहाड़ी पर पोजीशन ले रखी है, जहाँ से इम्फाल की मुख्य हवाई पट्टी उनके निशाने पर है। मगर 5वीं ब्रिटिश वाहिनी (जिसे अराकान से लाया गया है) के एम-3 ली टैंक पहाड़ियों पर चढ़ने में सफल रहते हैं और जापानी सैनिकों के पास टैंक-रोधी हथियार पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं। (ब्रिटिश टैंक पहाड़ियों पर चढ़ सकेंगे- यह अनुमान मुतागुचि को नहीं था।) ऊपर से हवाई आक्रमण भी की जाती है। इस प्रकार, ब्रिटिश भारवाहक वायुयान इम्फाल में फँसी अपनी सेना को मदद (Reinforcement) पहुँचाने में सफल रहते हैं।

(मित्र राष्ट्र ने एम-3 ली टैंक और बोफोर्स फील्ड गन ब्रिटिश सेना को उपलब्ध कराये हैं, जो युद्ध में निर्णायक हथियार बनते हैं।)

चर्चिल के माध्यम से जोर लगवाकर माउण्टबेटन अमेरिकी कमान से 20 भारवाहक विमान (सी-46 कमाण्डो) भी हासिल करने में भी सफल रहते हैं।    

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8 अप्रैल को जपान का शाही मुख्यालय सन्देश जारी करता है: आजाद हिन्द फौज के साथ-साथ लड़ते हुए जापानी सैनिकों ने 6 अप्रैल की सुबह कोहिमा पर कब्जा कर लिया है प्रसन्न नेताजी जापानी सैनिकों द्वारा मुक्त करायी गयी भारतीय धरती पर अधिकार की बात पूछ्ते हैं। जवाब आता है- उनपर आजाद हिन्द सरकार का अधिकार होगा।

इस पर नेताजी अपने वित्तमंत्री मेजर जेनरल ए.सी. चैटर्जी को नये आजाद कराये गये भारतीय इलाकों का गवर्नर नियुक्त करते हैं। इसके अलावे नेताजी यूरोप (जर्मनी) में स्थित ‘इण्डियन लीजन’ को आजाद हिन्द सेना का हिस्सा घोषित करते हुए नाम्बियार को अपने मंत्रीमण्डल में शामिल करते हैं। इसी समय वे अराकान क्षेत्र में बहादूरी दिखाने वाले अपने सैनिकों को सम्मानित करते हैं और कोहिमा क्षेत्र में युद्धरत अपनी सेना को ‘स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय सेना’ का दर्जा देते हैं।

13 अप्रैल को शौकत हयात मलिक के नेतृत्व में नेताजी का बहादूर ग्रुप यानागिडा की सेना के 214वें रेजीमेण्ट के साथ मोयरांग में प्रवेश करता है। ब्रिटिश सेना मैदान छोड़कर भाग जाती है। अगले दिन कुछ नागरिक इनसे मिलते हैं और इन्हें काँगला- प्राचीन मणिपुर की राजधानी- आमंत्रित करते हैं। 14 अप्रैल 1944 को शाम 5 बजे के लगभग काँगला किले में समारोहपूर्वक शौकत मलिक तिरंगा फहराते हैं। यह किला आजाद हिन्द सरकार का अग्रिम मुख्यालय बनता है और प्रायः तीन महीनों तक बना रहता है।

इस दिन को नेताजी शताब्दी की घटना घोषित करते हैं।

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कहाँ तो एक महीने में जीतने की बात थी और कहाँ डेढ़-दो महीनों तक कई भीषण और खूनी लड़ाईयाँ लड़ने के बावजूद इम्फाल को नहीं जीता जा सका है। जापानी/नेताजी के सैनिक पस्त होने लगे हैं- उनकी बढ़त रूक जाती है। 241 किलोमीटर तक भारत में प्रवेश कर चुके ये सैनिक अब ब्रिटिश हवाई बमबारी का आसानी से शिकार बनने लगे हैं, क्योंकि यह मैदानी इलाका है। दूसरी तरफ, जापानी वायुयानों के हमले कम-से-कम होते जा रहे हैं। अमेरीका ने प्रशान्त क्षेत्र में जापानी ठिकानों पर हमले तेज कर दिये हैं, फलतः जापान अपने वायुयानों का रूख इम्फाल से हटाकर अपने घर की ओर मोड़ रहा है।  

स्कून्स और स्लिम ने जब देखा कि ब्रिटिश और स्कॉट सैनिक, जापानी/नेताजी की सेना के सामने नहीं ठहर पाये, तब मराठों, गोरखों, बलूचों, पंजाबियों को लेकर एक विशेष बल (वुडफोर्स- कमाण्डर के नाम पर) बनाकर वे 25 मई को इसे आगे करते हैं- 30 मई तक भीषण लड़ाईयाँ होती है- मशीन गन, ग्रेनेड से लेकर बैनेट फाईट और गुत्थम-गुत्थी तक का इस्तेमाल होता है। मगर कोई भी पक्ष एक-दूसरे को पीछे नहीं धकेल पाता।

मौनसून एक महीने पहले दस्तक दे देता है- वह भी मूसलाधार बारिश के साथ। जापानी/नेताजी की सेना की आपूर्ती और संचार व्यवस्था लगभग ध्वस्त हो जाती है। बरसात अपने साथ मच्छर और मलेरिया, पेचिश, आदि बीमारियाँ लेकर आती है। बेरी-बेरी और जंगल-घाव- जैसी बीमारियाँ भी आम हैं। गोला-बारूद भींग रहे हैं, मशीनगनों की तड़-तड़ कम हो रही हैं।

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चिन पहाड़ियों में अपने सैनिकों के कष्टों की जानकारी एस.एन. खान नेताजी को भेजते हैं। आधा-अधूरा सन्देश नेताजी तक पहुँचता है मगर वे तुरन्त गाँधी एवं आजाद ब्रिगेडों को मदद के लिए सीमा की ओर रवाना करते हैं। खुद भी वे रंगून मुख्यालय छोड़कर सीमा के निकट मिमेओ में शिविर लगाते हैं।

सुदूर उत्तर में कोहिमा में सातो की सेना को पिछले कई हफ्तों से न तो गोला-बारूद मिले हैं, न राशन और न ही हवाई सुरक्षा। जापानी सैनिक जंगलों की घास की जड़ें खाने को बाध्य हैं। वे जीवित कम, मृत ज्यादा नजर आने लगे हैं।

यह सेना, जिसकी बहादूरी की तारीफ दुश्मनों ने भी की है, बिना ऊपर के आदेश के 30 मई की रात से पोजीशन छोड़कर वापस लौटने लगती है। जल्दीबाजी में एस.एन. खान के सैनिक, जो खुद चिन पहाड़ियों में कष्ट झेल रहे हैं, सातो की मदद को आते हैं, मगर तब तक सातो लौट रहे हैं और खान को भी पीछे हटने की सलाह देते हैं। लौटते हुए भी उन्हें भयंकर लड़ाई लड़नी पड़ती है।

उत्तर में दीमापुर-इम्फाल रोड पर डटे यामाउचि को भी रसद नहीं मिल रहा है। जब जापानी सैनिक भूख से मरने लगते हैं, तब वे अपनी पोजीशन छोड़कर आस-पास के गाँवों में भोजन की तलाश में जाने लगते हैं। यामाउचि को मुतागुचि की डाँट भी पड़ती है। भूखे-प्यासे ये सैनिक घेराबन्दी बनाये रखते हैं। ब्रिटिश 5वीं वाहिनी को जब दूसरी वाहिनी की मदद मिलती है, तब वे आगे बढ़ते हैं और 22 जून को यामाउचि को घेराबन्दी हटानी पड़ती है।  

पूर्व में यामामोतो भी अपनी शक्ति खो रहे हैं। तामू-इम्फाल रोड पर पूर्ण नियंत्रण पाने में असफल रहने के बाद 28 अप्रैल को वे सुभाष ब्रिगेड वालों को बीहड़ रास्तों से आगे बढ़कर पैलेल हवाई अड्डे पर आक्रमण करने को कहते हैं। एम.जेड. कियानी (या इनायत कियानी?) के नेतृत्व में सुभाष ब्रिगेड के सैनिक पैलेल हवाई अड्डा पहुँचकर पहले ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के लिए कहते हैं; प्रारम्भ में तैयार होकर बाद में वे मना करते हैं। सुभाष ब्रिगेड वाले दो टुकड़ियों में बँटकर आक्रमण करते हैं, मगर यामामोतो की सेना पूर्वनिर्धारित मौके पर नहीं पहुँच पाती। भारतीय सिर्फ एक दिन का राशन लाये हैं। मजबूर होकर उन्हें लौटना पड़ता है- अपने 250 सैनिकों को खोकर।

दक्षिण में यानागिडा विष्णुपुर शिविर पर कब्जा करने में असफल रहने के बाद शिविर के बगल से निकलकर इम्फाल पहुँचना चाहते हैं। (यानागिडा युद्ध की शुरुआत से ही निराशावादी हैं- मुतागुचि की योजना पर वे शुरु में ही अविश्वास जता चुके थे।)

16 मई को अपनी सेना के 214वें रेजीमेण्ट की पहली बटालियन को कर्नल साकू के नेतृत्व में वे आगे बढ़ने को कहते हैं। साकू ऐसा ही करते हैं और विष्णुपुर शिविर से आगे बढ़कर रेड हिल (लोत्पा चिंग) पर वे मोर्चा बाँधते हैं। 215वें रेजीमेण्ट की दूसरी बटालियन भी उनके साथ आ मिलती है। दोनों मिलकर विष्णुपुर की आपूर्ती रोक देती हैं। मगर ये सैनिक अपने भारी हथियारों को विष्णुपुर के पीछे छोड़ आये हैं; (यह यानागिडा की गलती है!) फलस्वरूप, ब्रिटिश गोलाबारी और हवाई बमबारी में ज्यादातर  सैनिक मारे जाते हैं। साकू की बटालियन के 4,000 में से 460 सैनिक जीवित बचते  हैं- इनमें भी आधे ही युद्ध के काबिल हैं!

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मुतागुचि 22 मई को यानागिडा को हटाकर ले. जेनरल नोबुओ तनाका को 33वीं वाहिनी का कमाण्डर नियुक्त करते हैं। तनाका कई बार आक्रमण करते हैं, मगर उन्हीं के सैनिक ज्यादा मारे जाते हैं। वक्त उनके खिलाफ है- यह भारी बरसात का समय है। दूसरी वाहिनियों से कुछ मदद मिलने के बाद अपनी आखिरी कोशिश में वे 2 जून को सम्राट के नाम पर नये सिरे से आक्रमण का आव्हान करते हैं-

यह इम्फाल को जीतने का समय है। हमारी इन्फैण्ट्री के शहीद हमारी जीत की इच्छा रखते हैं। आनेवाला युद्ध निर्णायक साबित होगा। महान पूर्वी एशियायी युद्ध की सफलता या असफलता इसी पर निर्भर करता है। हमारे साम्राज्य की नियती इसी युद्ध पर टिकी है। सभी अफसर और जवान, बहादूरी से लड़ें।

थोड़ी-बहुत प्रारम्भिक सफलता के बाद ब्रिटिश गोलाबारी के सामने उनकी सेना नहीं टिक पाती  जून के अन्त तक 33वीं वाहिनी लड़ने के काबिल नहीं रह जाती।

कावाबे जब 25 मई को युद्धक्षेत्र में जायजा लेने आये थे, तब ज्यादातर अधिकारियों का कहना था कि आपूर्ती व्यवस्था सही रहने पर युद्ध जीता जा सकता है- हालाँकि नुकसान का भयावह आँकड़ा उनके सामने नहीं रखा गया था; मगर जब वे 6 जून को फिर आते हैं, तब मुतागुचि ‘हारागेई’- हाव-भाव और कण्ठध्वनि की भाषा- से जाहिर करते हैं कि जीत असम्भव है।

युद्धक्षेत्र की परिस्थिति कितनी विकट है, इसका उदाहरण यह है कि कावाबे को पेचिश हो जाती है। शारीरिक अशक्तता के कारण शायद वे ड्यूटी करने के काबिल नहीं हैं। फिर भी, वे आक्रमण करते रहने का निर्देश देते हैं। हलाँकि अब मदद (Reinforcement) और हवाई सुरक्षा मिलने की कोई गुँजाईश नहीं बची है। (बाद के दिनों में उन्होंने बताया कि उन्होंने नेताजी के लिए ऐसा किया- क्योंकि नेताजी की सफलता पर जापान और भारत- दोनों देशों की नियति टिकी थी..... )

जून के अन्त में (33वीं वाहिनी के युद्ध के काबिल नहीं रहने के बाद) कोहिमा से लौटी सातो की सेना (31वीं वाहिनी) को यामाउचि की सेना (15वीं वाहिनी) के साथ मिलकर उत्तर की ओर से इम्फाल पर नया आक्रमण करने का आदेश मुतागुचि जारी करते हैं... मगर दोनों में से कोई भी डीविजन आदेश का पालन करने के लिए तैयार नहीं है। सन्देश साफ है... और 3 जुलाई 1944 को मुतागुचि जापानी सैनिकों को भारी हथियार छोड़-छाड़ कर वापस लौटने का आदेश दे देते हैं। मुतागुचि और कावाबे की सिफारिश पर टोक्यो आधिकारिक रुप से 8 जुलाई को वापसी का आदेश देता है।

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नेताजी वापसी की खबर सुनकर सन्न रह जाते हैं। बैठक में कावाबे के सामने खड़े होकर वे कहते हैं:

भले ही जापानी सेना ने अभियान छोड़ दिया हो, हम इसे जारी रखेंगे। अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए आगे बढ़ती हमारी क्रान्तिकारी सेना अगर पूरी तरह से हार जाये, फिर भी हमें इसका अफसोस नहीं होगा। हताहतों की बढ़ती संख्या, आपूर्ती का बन्द हो जाना और भूखमरी हमारे आगे बढ़ने में बाधा नहीं बन सकती। अगर हमारी सारी सेना मिट भी जाये, तो भी हमारी आत्माएँ अपने देश की ओर बढ़ती रहेंगी। यह क्रान्तिकारी सेना की आत्मा है...।

सीमा पर युद्धरत आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की भी यही स्थिति है- लौटने के आदेश पर वे रोते हैं... वापस लौटने के बजाय युद्ध करते हुए शहीद हो जाना उन्हें पसन्द है... मगर नियति ने अभी उनकी मृत्यु तय नहीं की है... मातृभूमि का कर्ज चुकाने के लिए अभी तो और भी कष्ट उन्हें उठाने हैं...

... सचमुच यह आजाद हिन्द फौज की आत्मा या भूत ही था, जो बाद के दो वर्षों तक लाल-किला (जहाँ आजाद हिन्द फौज के तीन युद्धबन्दियों का कोर्ट मार्शल चला) में, फिर देश भर में, और फिर देश की सैन्य-छावनियों में नाचता रहा और ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों को बगावत के लिए प्रेरित करता रहा... एक के बाद एक बगावत हुए... और अँग्रेजों को महसूस हुआ कि जिन भारतीय सैनिकों के बल पर वे इतने बड़े देश पर शासन कर रहे हैं, उनकी राजभक्ती अब भरोसे के लायक नहीं रही... और उन्हें भारत से जाना पड़ा...

सम्भवतः नेताजी यह जानते थे... और यही चाहते भी थे!